
बिहार के सुल्तानगंज स्थित तिलकपुर गाँव में 11 फरवरी 1750 को जन्मे संथाल समुदाय के वीर योद्धा तिलका मांझी को आधुनिक भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना जाता है। उनका वास्तविक नाम जबरा पहाड़िया था। पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ गुस्सैल, लाल आँखों वाला व्यक्ति होता है, जबकि गाँव के प्रधान को ‘मांझी’ कहा जाता था। अंग्रेज़ों ने ही जबरा पहाड़िया को ‘तिलका मांझी’ नाम देकर रिकॉर्ड में दर्ज किया।
ग्रामीणों पर अंग्रेज़ी शासन के अत्याचार, जंगलों–भूमियों पर कब्ज़ा और शोषण को देखते हुए तिलका मांझी ने कम उम्र में ही अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प लिया। भागलपुर क्षेत्र में वे लगातार सभाएँ कर लोगों को एकजुट करते थे और जाति–धर्म से ऊपर उठकर स्वतंत्रता की भावना जगाते थे।
1770 के भीषण अकाल के दौरान तिलका मांझी ने अंग्रेज़ी खज़ाना लूटकर गरीबों में बाँटा, जिसके बाद बड़ी संख्या में आदिवासी उनके साथ जुड़ गए और शुरू हुआ प्रसिद्ध संथाल हुल — अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ संगठित आदिवासी विद्रोह।
तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों के साथ-साथ उनके समर्थन में खड़े जमींदारों पर भी लगातार हमले किए और हर मोर्चे पर जीत दर्ज की। जैसे-जैसे विद्रोह फैलता गया, अंग्रेज़ शासन भयभीत होने लगा। लंबे संघर्ष के बाद वे भोजन और पानी के अभाव में पहाड़ों से निकलते समय पकड़े गए।
कहा जाता है कि अंग्रेज़ों ने उन्हें चार घोड़ों से बंधवाकर घसीटते हुए भागलपुर लाया, जहाँ 13 जनवरी 1785 को एक बरगद के पेड़ से फाँसी देकर सार्वजनिक रूप से दंड दिया गया। उस समय मंगल पांडे का जन्म भी नहीं हुआ था, इसलिए इतिहासकार उन्हें भारत का प्रथम सशस्त्र विद्रोही मानते हैं।
मौत के बाद भी अंग्रेज़ और जमींदार उनकी “तिलका” जैसी तेज़ आँखों से डरे रहते थे।
इतिहास गवाह है कि तिलका मांझी का यह विद्रोह ही आगे चलकर आजादी के बड़े आंदोलन की नींव बना।
भारत माँ के इस अमर सपूत तिलका मांझी को शत–शत नमन। लेखक –
रामवृक्ष वाराणसी

