सतयुग में हिरण्यकश्यप नामक एक अती पराक्रमी और शक्तिशाली दैत्य राजा का जन्म हुआ था। उसका जन्म महर्षि कश्यप और दिति के कुल में हुआ था। हिरण्यकश्यप को भगवान ब्रह्मा से एक विचित्र वरदान प्राप्त हुआ था, जिसके कारण उसे अमरता का आभास हो गया था। इस वरदान की वजह से स्वयं नारायण को मृत्यु लोक में अवतार लेकर उसका वध करना पड़ा।
हिरण्यकश्यप और उसका भाई हिरण्याक्ष अपने पूर्व जन्म में भगवान विष्णु के बैकुंठ धाम के प्रहरी थे, जिनका नाम जय और विजय था। एक दिन उन्होंने भगवान ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों का अपमान किया और उन्हें बैकुंठ में प्रवेश करने से रोका। इस अपमान के कारण उन्हें श्राप मिला कि वे तीन जन्मों तक असुर कुल में जन्म लेंगे और उनके वध का कारण भगवान विष्णु ही होंगे। इसलिए जय और विजय ने हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष के रूप में जन्म लिया।
हिरण्यकश्यप का विवाह कयाधु नामक स्त्री से हुआ था, जिससे उसे प्रह्लाद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। यह वही पुत्र था जो आगे चलकर उसकी मृत्यु का कारण बना। जब हिरण्यकश्यप भगवान ब्रह्मा की तपस्या में लीन था, तो देवताओं ने उसकी नगरी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना शासन स्थापित कर लिया। तब देव ऋषि नारद मुनि ने कयाधु को अपने आश्रम में स्थान देकर उनकी रक्षा की। वहीं प्रह्लाद का जन्म हुआ और नारद मुनि की संगत में रहने के कारण वह भगवान विष्णु का भक्त बन गया।
हिरण्यकश्यप का छोटा भाई हिरण्याक्ष अपने अहंकार में आकर पृथ्वी को समुद्र में डुबो देता है, तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर उसका वध कर दिया और पृथ्वी को समुद्र से निकाल दिया। अपने भाई की मृत्यु से हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हो गया और भगवान विष्णु से बदला लेने की ठान ली। उसने भगवान ब्रह्मा की कठिन तपस्या की और लगभग 100 वर्षों के बाद ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया। हिरण्यकश्यप ने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु न तो किसी मनुष्य से हो, न ही किसी पशु से; न तो अस्त्र-शस्त्र से, न दिन और न रात में; न भवन के बाहर और न ही अंदर; और न ही भूमि पर और न ही आकाश में हो।
इस वरदान को प्राप्त कर हिरण्यकश्यप अत्यंत शक्तिशाली हो गया और उसने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। उसने इंद्र का आसन छीन लिया और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। उसने सभी लोगों को भी उसे भगवान मानने के लिए विवश किया। लेकिन उसका पांच वर्ष का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहता था। प्रह्लाद द्वारा भगवान विष्णु को मानने पर हिरण्यकश्यप ने उसे कई प्रकार की यातनाएं दीं, जैसे सांपों से भरे कक्ष में रखना, हाथियों के पैरों के नीचे फेंकना, पर्वत से गिराना और अग्नि में जलाना। लेकिन हर बार भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की।
एक दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से भगवान विष्णु के होने का प्रमाण मांगा। प्रह्लाद ने कहा कि भगवान विष्णु कण-कण में विद्यमान हैं। हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर एक स्तंभ की ओर इशारा किया और पूछा कि क्या विष्णु इसमें भी हैं? प्रह्लाद ने हां में उत्तर दिया। यह सुनकर हिरण्यकश्यप ने क्रोध में आकर स्तंभ को तोड़ डाला। जैसे ही स्तंभ टूटा, उसमें से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। नरसिंह का आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था।
भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को उसके भवन की चौखट पर संध्या के समय अपनी गोद में रखकर नाखूनों की सहायता से उसका वध कर दिया, इस प्रकार भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप के अत्याचार का अंत कर दिया।
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