आज मछुवारा समाज के अनेक लोग विस्थापन के कारण उन सुविधाओं से वंचित हैं, जो उन्हें आरक्षण व्यवस्था के तहत मिलनी चाहिए। हाल ही में मेरे संज्ञान में एक मामला आया, जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि मछुवारा समाज की कई उपजातियों को अनुसूचित जनजाति का आरक्षण तो प्राप्त है, परंतु जिला स्तर पर तय इस आरक्षण का लाभ सभी को नहीं मिल पा रहा। इसका एक बड़ा कारण यह है कि बहुत से लोग रोजगार या अन्य कारणों से अपने मूल निवास स्थान से विस्थापित हो चुके हैं।
जब वे आरक्षण का लाभ उठाने की आवश्यकता महसूस करते हैं, तो अपने मूल निवास स्थान का प्रमाणपत्र नहीं प्राप्त कर पाते। यह समस्या इसलिए होती है क्योंकि विस्थापन के समय उन्होंने अपनी जमीन और मकान दूसरे के नाम हस्तांतरित कर दिए होते हैं। साथ ही, समय के साथ मानवीय धरोहर जैसे ताऊ, चाचा या अन्य सगे संबंधियों से भी दूरियां बढ़ गईं। इन परिस्थितियों में जब वे अपने अधिकारों का दावा करते हैं, तो उन्हें अपने मूल स्थान से कोई सहायता नहीं मिल पाती।
यह सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति सफल हो जाता है, तो वह अपने लोगों से दूर हो जाता है, और यदि वह असफल हो जाता है, तो अपने ही उससे दूरी बना लेते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, “यदि आपको कोई खरीदे तो बिक जाना, परंतु अपनी टूटी हुई झोपड़ी उजाड़कर मत जाना।” डॉ. अम्बेडकर का यह कथन आज भी अत्यधिक प्रासंगिक है, विशेष रूप से उन मछुवारा समाज के लोगों के लिए, जिन्होंने विस्थापन के चलते अपना सब कुछ खो दिया है।
जिन्होंने अपनी ज़मीन, मकान और पारिवारिक संबंधों को छोड़ दिया, वे अब इस दर्द और संघर्ष को गहराई से महसूस कर रहे हैं। आज, मछुवारा समाज को इस विस्थापन के संकट से उबरने के लिए सामूहिक रूप से सोचना और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए कदम उठाना होगा।