मल्लाह जाति का इतिहास एक संघर्ष और अस्तित्व की कहानी है। प्रोफेसर हेनरी श्वार्ज़ के अनुसार, भारतीय समाज में यह धारणा गहराई से जमी हुई थी कि अपराध वंशानुगत होता है, और इस आधार पर मल्लाह जैसी जातियों को अपराधी मानकर उनके पूरे समुदाय को दोषी ठहराया जाता था। 1772 में वॉरेन हेस्टिंग्स के कार्यकाल के दौरान लागू किए गए कानूनों में यह मान्यता दी गई कि अपराधी के परिवार और गांव को सामूहिक रूप से दंडित किया जा सकता है। यह व्यवस्था जातिगत भेदभाव और पुरानी न्याय प्रणाली का हिस्सा थी, जिसमें समाज के कमजोर वर्गों को निशाना बनाया जाता था।
सन् 1871 में ‘अपराधी जनजातियों अधिनियम’ के अंतर्गत मल्लाह जाति को भी अपराधी जनजाति घोषित किया गया। हालांकि, मल्लाह जाति पर यह कलंक सदियों पुराना था, जो लगभग 300 वर्षों से चला आ रहा था। इस कलंक से बचने के लिए मल्लाह समुदाय के लोगों ने अपने नाम और पहचान को बदलने का रास्ता अपनाया। यह धारणा थी कि यदि वे मल्लाह नाम का उपयोग करना बंद कर दें और अन्य जातियों की पहचान अपना लें, तो वे सामाजिक भेदभाव और दमन से बच सकते हैं।
इस आत्मरक्षा के प्रयास में मल्लाह जाति के लोगों ने लोधी, राजपूत, कश्यप, गोंड, कहार, भोई, रायकवार, सोंधिया, और महरा जैसे नामों को अपनाया। यह बदलाव केवल एक नाम बदलने का कार्य नहीं था, बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा और अपराधी जनजाति के कलंक को मिटाने का प्रयास था। इस प्रकार, मल्लाह समुदाय ने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित करने और एक नई पहचान प्राप्त करने के लिए यह महत्वपूर्ण कदम उठाया।