
ब्रह्मपुत्र महर्षि नारद को अपने त्रिलोक विचरण पर घमंड था। देवताओं ने उन्हें बिना गुरु का बताया और देवसभा अपवित्र होने का कारण भी यही माना। लज्जित होकर नारद गुरु की खोज में भटके।
भगवान विष्णु ने उन्हें आदेश दिया कि प्रातःकाल नगर द्वार पर जो पहले मिले, उसे गुरु बना लो। वहाँ उन्हें कालू केवट (मछुआरे) मिले। नारद ने उन्हें गुरु स्वीकार किया और जाल का धागा जनेऊ रूप में धारण किया।
देवताओं ने इसे अपमान मानकर नारद को अभिशाप दिया कि जब तक चौरासी लाख योनियों का भोग नहीं करोगे, तब तक देवसभा में प्रवेश वर्जित है। समाधान के लिए नारद पुनः गुरु कालू केवट जी के पास पहुँचे। गुरु की कृपा से भगवान विष्णु प्रकट हुए और नारद को अभिशाप से मुक्ति दिलाई।
मान्यताएँ व परंपराएँ
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को श्री हरि बाबा कालू केवट जी महाराज का जन्मोत्सव मनाया जाता है।
उनकी संतानें आज केवट, कहार, निषाद, बिन्द, मांझी, धींवर, साहनी, मेहरा, रायकंवार आदि नामों से जानी जाती हैं।
मुम्बा माता (लक्ष्मी जी का स्वरूप) और कालू केवट जी कुलदेव-देवी हैं।
जल कार्य, नौकायन, मत्स्य आखेट या कृषि कार्य से पहले इनकी प्रार्थना करने से सुरक्षा व सफलता मिलती है।
बच्चों के जन्म पर जड़ूला, नवविवाहित दम्पत्ति गठजोड़े की जात तथा फसल का पहला अंश इन्हें अर्पित करने की परंपरा है।
संदेश:
“गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा है। गुरु के बिना मोक्ष संभव नहीं।”
लेखक -रामवृक्ष, अभियंता सेवानिवृत्त वाराणसी से। मोबाइल नं 9616233399

